मन का पिटारा।
वोह शानिवार की खाली रात थी,
हम युही बस जाम लगाए बैठे थे।
सोचे, वोह बरसों पुराना जो मन का पिटारा है ना?
उसे ज़रा जुंझला कर देखते है।
हाथ डाला तोह मिले कुछ नम;
पर हिरे से चमकते खारे आंसू ,
पिताजी के निधन बाद जो दर्द के साथ धोलकर पीये थे,
शायद वोह ही, आज भी पड़े हुए है।
आज भी उसे कुछ न कह सके ,
वोह बेबसी भी कही गई नई है !
कम्बखत, अभी भी उधर की उधर मेरे अहंकार के साथ,
जकड़ी हुई हुई है बेमतलब!
स्कूल की मार, पेहले सुट्टे की खासी,
की सब पुरानी यादो की थप्पी!
थोड़ी तमिझ से, पर रद्दी के फटे पेपर की गड्डी की तरह,
एक ऊपर एक रखी हुई है कही।
बस, फिर क्या हम एक के बाद एक चीज़े निकालते गए,
और एक के बाद एक चीज़े निकलती गई,
फिर खयाल आया,
पर मेरा बचपन कही गायब ही था।
डर लगा, रख तोह नही दिया ना मेने इधर उधर कही उसे?
या खो तोह बुद्धु की तरह उसे कही?
फीर याद आया के , हा!
के याद आया!!
वोह जोह दसवीं रिझल्ट आया थाना,
उसे तोह उसी दिन ही जला डाला था।

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