The Treasure
The Treasure
"भगवान की दया से अब सब ठीक हो जायेगा, चलो तोह हम फ़ोन रखते हे!"
में मोबाइल फोन हाथ में लिए, अपने अपार्टमेंट की दी गई एक ही पर थोडी बड़ी खिड़की से झाकते हुए, चुपचाप सब सुन रहा था। येह हप्ते में तीसरी बार था जब बाबा का ऐसे फोन आया होगा। जब पहली नौकरी छोड़ी थी तब रोते-रोते ही सही पर पहले फोन उन्हीको किया था। डाट तो खूब पड़ी थी, सहम थी बहोत गए थे, दोनों । मेरी नौकरी छोड़कर लेखक या कोमेडियन बनाने का कदम उन्हें भी एक भूल ही तो लगती थी।
ऐसा नहीं था की वोह मेरे सपनो को समझ नहीं रहे थे, बस उनका तजुर्बा उन्हें यह मानने को रोक रहा था।
वोह नौकरी छोड़ने के बाद से मुझे एक लेखक की नौकरी मिलने तक तक़रीबन हजार मर्तबा मोबाइल फोन पे उनके नाम से स्क्रीन चमकती रहती। क्या खाया, क्या पहना से कोई फ़िक्र मत करना तक सारी बाते होती रहती, हझारबार, हरबार।
जब उस दिन नौकरी मिली भी तोह पहला फोन भी तोह उन्हीको किया था, यह आस में की अब कोई तोह चैन से सो पायेगा।
पर क्या करे बाबा का दिल था की मान ही नहीं रहे थे, कंपनी जांच ले कोई धोखा तोह नहीं, वहा का टाइम क्या हे, पैसे कितने देंगे, उनका मन उन सवालों के जवाब हज़ार बार सुनके भी नहीं भरता था।
उस दिन भी कुछ ऐसा ही था....
"चलो तो हम रखे फोन?" येह आवाझ मुझे मेरी सोच से वापस ले आयी।
"हा, ठीक हे।" मेने भी ऐसे ही बोल दिया।
"पैसे हे नाह तुम्हारे पास?"
यह चीझ बाबाने काफी समय के बाद ही पूछी थी, पहली नौकरी के बाद से ही मेने घर से पैसे लेना बंद ही कर दिया था।आज इस प्रश्न का तातपर्य समझना कुछ मुश्किल ही हो चूका था !
"हा , क्यों ? " मेने जवाब दिया।
"बस ऐसे ही, तुम्हारे नौकरी छोड़े लगभग एक महीना होने को आया हे और पिछले महीने की सारी पगार तो ख़त्म ही हो गई होगी और नई जगह पे तुम्हे पहले दिन ही थोडी पैसे मिलेंगे ? तुम वहा काम करोगे उसके एक महीने बाद तुम्हे पगार मिलेंगाना!"
में एक बनिये के दिमाग पे हस पडू या अपनी किस्मत पे रोऊ समझना काफी मुश्किल था ! उनकी बात बिलकुल सच थी। मेने येह तो सोचा ही नहीं था और कमबख़्त वोह महीना भी जनवरी था जो 31 दिन के सिवा कही जाने वाला नही था।
"नहीं , कुछ पैसे पड़े हे, एक महीना तोह निकल ही जायेगा !"
वोह मेरी बेबसी थी या मेरा स्वाभीमान के नहीं बोल पाया उनसे कुछ भी और उन्होंने फोन भी रख दिया !
लोग हमेशा सोचते हे की नई नौकरी मिलेंगी तोह सब ठीक ही जायेगा, नई जगह जाऊंगा तोह सब ठीक हो जायेगा, कुछ यह नया ट्राइ करूँगा उसके बात तोह तो सब ठीक ही हे। सच्चाई हमेशा कुछ और ही होती हे, मेरे लिए हमेशा नई जगह एक एक बड़ी मुसीबत ही ले कर आई हे।
नयी नौकरी की सबसे बड़ी चुनौती थी, मेरा कम बजेट!
देखा जाए तो मेरे पास जितने भी पैसे थे वोह तोह मेने अपने रेंट पे दे दिए थे, मेरे पास मेरे बैंक में रखे सिर्फ वोह 50 रुपिये थे जो में एटीएम से कभी उठा नई सकने वाला, मेरे खाने का, चाय का, नाश्ते का, लॉन्ड्री सब का खर्चा रामभरोसे ही था !
एक चीज मेरे बारे मे ! कोलज और उसके पहले से मुझे जब जब पैसे की जरुरत पड़ी हे, वोह पैसे जो घरवालो से में कभी नई मांग सकता, यु कहे तो गोवा जाने से पार्टी करने का सारा काला पैसा जहा से आया हे उसकी एक मात्र जरिया थी, मेरी बड़ी बहन।
मेरा उससे उधार यहाँ के नेताऔ के स्विझर्लैंड में पड़े पैसो से भी ज्यादा है ! जो कभी उसने वापिस मांगा नहीं और में कभी देने वाला भी नहीं।
मेरे दिमागमे उस समय इससे बचने का यही रास्ता था, तोह मेने उसे फ़ोन लगाया,
"हां, दीदी कैसी हो, एक काम था करोगी?" मेने सीधे ही पूछ लिया।
"अब कितने पैसे चाहिए ?"
मेरा पुराने पैतरे और डायलॉगो से बिलकुल अनजान नई थी!
" जीतना आपसे हो सके!" में भोला बन रहा था।
"कितने कर्झे में डूबे हूऐ हो ?" यह उसका हरबार का चिढ़ाने का तरीका था !
"4000 चाहिए !"
"नई होगा! उतने नहीं हे मेरे पास !"
"जितने हो सके !!!" में गभराया।
"1500 होंगे अभी तोह" उसने थोड़ी देर बाद जवाब दिया !
मैंने ठीक हे कह कर फोन रख दिया। परिस्थिति खूब ख़राब थी, जितने मिले उतने ही सही। कुछ दिन के बाद दीदी के यहाँ से पैसे तोह आये पर जैसे ही आये दोपहर के खाने की मेस में सारे चले गए, उससे भी महीने भर का कार्ड तोह नहीं बनवा पाया !
पर कुछ दिन तोह सही , वैसे ही मेने अपनी धककागाड़ी चलने दी !
ट्रैन का पास नहीं लगाया था, तोह 30 मिनिट ऐसे ही औफिस चलके जाता था, रात का खाना तोह जैसे छोड़ ही दिया था, जिन्दा था तोह सिर्फ एक दोपहर का खाना, उसके लिये भी पैदल खूब चलना पड़ता था।
कुछ दिन चला ऐसा पर फिर थकान के कारन काम में भी रूकावट आ गई, डायरी में हझार बार गीनती कर ली की और कितने रुपये लगेंगे, कोन सी चीझ काम की हे, किस चीझ में पैसे भरे जाय। सोचा मांग लेता हु थोड़े पैसे बाबा से , पर मेरा स्वाभिमान मेरी लाचारी को ऐसे आँख दिखाके बिठा रही थी जैसे कोई माँ अपने बेटे को मेले में चीज़े न दिलाने की वजह से दिखती हे।
फिर एक रात, भूखे पेट नींद न आने से में अपने मोबाइल में झाक रहा था, तब एक दोस्त का नंबर दिखा। क्या पता नई क्यों मेने उस्से फोन लगाया,
"भाई कुछ पैसे चाहिए थे, मिलेंगे ?"
मे स्वार्थी आदमी हु, मेने कभी मेरे दोस्तों को कभी सामने से फोन किया हे, ना मेने कभी वॉट्सअप ग्रुप में उनसे लम्बी लम्बी बाते की हे, स्कुल के बाद स्कुल के और कॉलेज के बाद कॉलेज के सारे दोस्तों को एक मुसाफ़र की तरफ छोड़ ही आया था मे,
"कितने चाहिए और बैंक डिटेल्स भेज दे !"
शायद दोस्ती हे ही एक पाक चीझ, महीनो बाद फोन किया होगा उसको, सालो तो मिले हुए हो गए होंगे, पर आज भी एक सवाल नही न कोई शिकायत!
वोह पैसे आने के बाद, अब लगभग सब ठीक हो ही चूका था !
वोह पैसे से ट्रैन का पास और रात के खाने का इल्तिजामात हो चूका था!
दिन बीते जा रहे थे और एक दिन अचानक सुबह औफिस जाने के लिए ट्रैन में बैठा तोह मेने देखा की मेरे जुते फटे हुए थे।
'FUCK!' मेरे मन में जो पहला विचार आया था यह वही था ! और में सोच रहा था काश यह चीझ 10 दिन बात हो जाती काश !!
अब आप जब ऑफिस में काम कर रहे होते हे, तब वह की कुछ नीतिओ का आपको पालन करना पड़ता हे, आपको वाहां की गरिमा का ख्याल रखना पड़ता हे, आप ऐसे ही स्लीपर्स पेहेनके वहां जा नहीं सकते और आप कभी जूते उधार नहीं ले सकते। इसीलिए जो पैसे महीनो के आखरी दिन के खाने के लिए बचाये थे उसमे से आधे से ज्यादा एक जूता ख़रीदिने मे लग गये।
एक दिन वोह भी आया जब दिन के खाने का पास ख़तम हो गया पर महीना खत्म होने में अभी चंद दिन बाकी थे, पैसे तो थे पर उतने नहीं के बाकि दिन के खाने का बिल भर सके। कैलेंडर पे, दिमाग में , मन में सब जगह एक ही चीझ की गिनती हो रही थी अब और कितने दिन बाकि है? क्युकी पगार इतना मिलाने वाला था की सब अपने आप ठीक हो जाने वाला था। पर, उस दिन से महीने के आखरी दिन के बिच लगभग 5 दिन बाकि थे और पैसे के नाम पर चंद 100 के नोट।
बेबसी और निराशा ने मुझे जैसे खा ही लिया था, रात को बिस्तर पे सोने का जैसे नाटक ही कर रहा था, तब नजर पड़ी एक किताब पे और आँख में आसु आ गए।
रोने के पीछे का कारन था एक विचार , जो एक करंट की तरह मेरे दिमाग में तो आया था पर मुझे संपूर्ण झुँझला के रख दिया था। बॉम्बे के एक जगह हे, फोर्ट। वह जगह तोह बहोत ही चीझो के लिए जानी जाती है, पर मेरे लिए वह खास थी उसकी किताबो के बाजार के लिए।
किताबो का बाझार, जहा शेक्सपियर से लेके डिकेन्स तक या रूबी कोर से लेके जेक गिल्बर्ट तक सब कुछ मिलता हे, एक के ऊपर एक किताबो की जैसे गड्डी रखी होती हे, यह जगह मुझे सिर्फ इसी लिए भी पसंद नहीं के यहाँ बहोत सारी किताबे मिलते हे पर इसी लिए भी के वेह किताब बेचने वाले किताब का उमदा ज्ञान भी रख थे। में वहां जा कर सिर्फ किताबो के नाम बोलता वोह उसका लेखक, कोनसे पन्ने पे क्या लिखा हुआ हे सब बता देता, दोस्ती उस हद तक हो गई थी के उस दिन ऐना रेन्ड की किताब खरीदने गया तोह बोल उठा के,
"यह मत पढ़िए, आपको उनकी फिलॉसफी शायद कम ही पसंद आये। "
ये वोही जगह थी, जहा मुझे गीतांजलि की वाय. बी. येस्ट की अंग्रेजीमें रूपांतरित की हुई पृष्ट कुछ चंद कीमतों में ही मिल गई थी। येह जगह की खास बात यह भी हे की अगर आप किताब खरीदने के बाद रखना चाहते हे तो ठीक हे, पर अगर नहीं रखना चाहते तो आप उससे कभी भी लोटा सकते हे, वोह आपको उसकी आधी कीमत लोटा देगा , बिना कोई सवाल किये।
में वैसे कभी किताब वापस नई करता, पर उस दिन पैसे के लिए मन में वोह किताब बेचने का ख़याल आया, आखे भर आई, किताबो से कुछ उस तारह का लगाव हे की बया करना भी बेमुहासिब होगा पर पेट में लगी भूख के आगे ये भावना, जैसे पतझड़ में वृक्ष के पन्नो की तरह ही थी।
में दूसरे ही दिन मेरी सब किताबो की एक पोटरी बाँधी, वोह किताबें जिसका आज मूल्य हझारो लाखो से कम नही था, उससे में चंद पांचसो के लिए बेचने निकला था। शाम को ऑफिस से निकलने के बाद में वहा पहोचा वोह सारी किताबे उससे थमाई और नझर से नझर मिलाये बिना बोल दिया वापास ले लो।
वोह दुकानदार भी असमंजस में था, जो आदमी किताबो के देख के पागल हो जाता था, आज वोह अपनी गीताजंली को बेचने आया था, वोह नारायण मूर्ति, जिसकी किताबो पर हम घंटो बाते किया करते थे, आज उसकी और देख भी नही रहा हे।
उसने सब किताब का एक बिल बनाया बिना कुछ पूछे पैसे हाथ में थमा दिए।
में भी कुछ सुन्न ही खड़ा था, जेसे कोई वैश्या अपने जिस्म की कीमत ले रही हो, में भी बस देख रहा था।
बस आसु आने ही वाले थे, पर यह कह के चल दिया,
"संभाल के रखने उसको यह में वापस लेने आऊंगा, उसमें से कुछ भी बेच मत देना। " में वहा से भाग आया।
वोह पांच दिन बित गये, उस रोझ सुबह पगार आ गई, मधर इंडिया फिल्म की वह गाने 'दुःख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे' की तरह जैसे ख़ुशी की लहार छा गई। घर में सब को फोन कर दिया। उस दिन ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। खाने के लिए उस दिन महँगा रेट्रोरा पसंद किया था और उस दिन जैसे पैसे देने के लिए दोस्तों मे भी लड़ाई सी हो रही थी।
में बस शाम होने का इंतेझार कर रहा था, ऑफिस की घडी की तरफ थोड़ी थोड़ी देर बाद देखना जैसे अब यह घंटे का कटा यहाँ से वहा हो जाए, वोह इंतेझारी में 6 -7 बार बाथरूम की सेर कर आना,केन्टीन की ऐसे ही चक्कर काटना, जैसे समय कट ही न रहा हो।
6 बजे, में अपना डेस्कटोप बंध कर के जैसे दौड़ ही पड़ा, अपने ऑफिस के पास वाले स्टेशन से चर्चगेट की टिकट ली और लपाक से वोह 6:15 की धीमी लोकल में बेठ गया। धीरे धीरे एक एक स्टेशन आते गई, महालक्ष्मी, चरनी रोड, ग्रेट रोड, मरीन लाइंस और आखिर में वानखेड़े स्टेडियम से होते हुए चर्चगेट।
गाड़ी जेसे ही रुकी में जैसे दौड़ पड़ा, चर्चगेट से उस समय हझारो की भीड़ ऑफिस से आ रही थी और में उसको काट कर आगे जा रहा था।
में जब 10 मिनट दोडके वह ठेले के पास रुका तब पता चला मेरी सांस फूल रह थी और तकरीबन सारे लोग मेरी और देख राहे थे, में हस पड़ा, समझ में नहीं आया की में क्यों भाग रहा था ?
वोह किताबवाला भी जैसे मुझे धुरे जा रहा था , मेने उसकी और देखा और मेरे किताबो के बारे में पूछा!
उसने एक कोने की तरफ इशारा किया जहा मेरी सब किताब जैसे छोड़ी थी वैसे संभाल के राखी थी, मेने वोह पोटरी उठाई और पैसे देने के लिए झुका।
"साब, एक गुजराती किताब आयी हे, देखेंगे ? " उसने पूछा।
"कोनसी ?" मेने पूछा।
"सोराष्ट्र नी रसधार- झवेर चाँद मेघाणी " वोह बोला
में हस पड़ा, वोह समझ गया, किताब वोह पोटरी में रख दी।
"हम को पता था आप लेंगे इसी लिए, किसी को बेचीं नही" वोह अपनी भोजपुरी में बोल रहा था।
वापस आते सारे रस्ते में में चुप रहा, कुछ सोच ही रहा था, शायद।
ट्रैन पकड़ी घर जाने के लिए, लगभग खाली ही थी, खिड़की वाली जगह ले के, किताब की पोटरी को कस के मानो जकड़ ही लिया। वोह दिन मेरे भले सबसे ख़राब दीन रहे हो और क्या पता बम्बई हे उससे भी ख़राब दिन आने वाले हो , पर येह आखरी बार, येह आखरी बार था, और में जैसे चीख ही उठा,
"अब येह खजाना में किसीको नही बेचने वाला।"
Fin.
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